शुक्रवार, 10 अगस्त 2007

नज़र उठाओ ज़रा तुम

नज़र उठाओ ज़रा तुम तो क़ायनात चले,
है इन्तज़ार कि आँखों से “कोई बात चले”

तुम्हारी मर्ज़ी बिना वक़्त भी अपाहज है
न दिन खिसकता है आगे, न आगे रात चले

न जाने उँगली छुडा के निकल गया है किधर
बहुत कहा था जमाने से साथ साथ चले

किसी भिखारी का टूटा हुआ कटोरा है
गले में डाले उसे आसमाँ पे रात चले

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